बताओ तो कहाँ गया विश्व बंधुत्व..

कुछ दिन पहले  Osho.com पर हिंदी में ओशो प्रवचनों के कुछ उद्धरण पढ़ रहा था. निम्नांकित उद्धरण पर मेरी नज़र टिकी :

“अतीत के बुद्ध किसी सामाजिक क्रांति में उत्सुक नहीं थे। उनका संपूर्ण संबंध अपनी उपलब्धि से था, अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि से था। एक तरह से वे स्व-केन्द्रित थे; और यही कारण है कि पूर्व ने कोई सामाजिक क्रांति नहीं देखी। जब सब प्रतिभाएं स्व-केन्द्रित हो जायें तो लोगों को सामाजिक क्रांति के बारे में कौन बताता? बहुत ही करते तो वे लोगों को दान करना सिखा देते, लेकिन वे ऐसे संसार की कल्पना न कर सकते जो गरीबी के बिना हो । मैं ऐसे संसार की कल्पना करता हूं जो बिना ग़रीबी के हो, बिना वर्गभेद के हो, बिना राष्ट्रों के हो, बिना धर्मों के, बिना किसी भेदभाव के हो। मैं ऐसे संसार की कल्पना करता हूं जो एक हो, ऐसी मानव-जाति  जो एक हो, ऐसी मानव-जाति  जो सब कुछ बांट सके, बाहरी भी, भीतरी भी — एक गहरा आध्यात्मिक बंधुत्व…”

मुझे यह लगा कि ओशो ने यह प्रयोग अपने कम्यून में ही कर दिखाया था. उनका कम्यून पूरे विश्व के लगभग सभी देशों के लोगों का प्रेमपूर्ण समूह था, विश्वभर से आये मित्रों का मिलन स्थल था. ओशो ने स्वयं शुरुआत कर दी थी और चेताया भी था कि मैं तो बीज बो चला, देखना ये बीज कहीं बीज ही न रह जाएँ। बीज से आगे का विस्तार है वृक्ष होना, उस वृक्ष पर फूलों का आना और फलों का आना. कम्यून अपने रिसोर्ट के रूप में भी एक विश्व बंधुत्व की अनूठी मिसाल बन सकता था, थोड़े समय के लिए बना भी था. नए मिलेनियम तक उसी दिशा में गतिमान था। रिसोर्ट के रूप में भी किसी को इससे ऐतराज़ नहीं था, अगर इसकी मूल भावना रहती, इसके विस्तार के लिए सक्रियता बनी रहती।
जीवन का एक अद्भुत नियम है, ओशो ने स्वयं उसका स्मरण दिलाया है कि ऊर्जा शक्ति कुछ ऐसी बात है कि या तो ऊपर जायेगी या नीचे गिरेगी, एक स्थान पर वह टिकी नहीं रह सकती। अगर आप उसे गतिमान नहीं रखते तो वह स्वयं नीचे गिरेगी. मिलेनियम वर्ष के कुछ वर्षों बाद भी ऐसा लग रहा था कि विस्तार हो रहा है, लेकिन किसी मोड़ पर आकर लगा कि अब संकुचन, सिकुड़ाव शुरू हो गया है.  
और यह मुख्यतः तब शुरू हुआ जब ओशो के प्यारे शिष्यों को–जो पूरे विश्व के लोगों के आतिथेय के लिए ओशो के प्रेम से लबालब भरे हुए थे –वे परिपक्व लोग प्रबंधन के लोगों को बोझ लगने लगे. उन्हें चालाकियों के साथ बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. उनके साथ बाह्य और लोभ का फार्मूला अपनाया गया–आनन्दो और शून्यो को कहा गया ये लो पैसे और बाहर जाकर अपना कोई काम करो. स्वामी सत्य वेदांत जो ओशो द्वारा मल्टीवर्सिटी चांसलर नियुक्त  किये गए थे, उनके लिए कम्यून का कोई कमरा भी उपलब्ध नहीं था –और न आनन्दो के लिए भी. फिर  हमें वे सब लोग –देवगीत,  नीलम, शून्यो, आनन्दो, मनीषा, वैराग्य अमृत, नरेन्द्र बोधिसत्व और न जाने कितने प्यारे प्यारे लोग वहां दिखना भी बंद हो गए. और कम्यून सिकुड़ता गया. ऐसा नहीं था कि कम्यून के पास आवास की अचानक कोई कमी आ गयी थी, आवास व्यवस्था तो पहले से ज्यादा अधिक थी, और बहुत कमरे अक्सर खाली भी पड़े रहे, लेकिन केवल उनके लिए उपलब्ध नहीं थे, जिन्हें ओशो ने सदा अपने पास रखा था. वो विश्व बंधुत्व था वह जयेश-योगेंद्र बंधुत्व ( Nepotism ) में सिकुड़ गया। ओशो के ये प्यारे लोग, जो बाहर कर दिया गए, वे कभी भी कम्यून पर बोझ नहीं थे, वे सदा  पूरे विश्व के लिए एक चुंबकीय आकर्षण होते और कम्यून निरंतर फलता फूलता, लेकिन उसे जानबूझ कर सूखने दिया गया. वर्क मैडिटेशन का स्थान ले लिया एक इंटरनेशनल सोडेक्सो कंपनी में काम करने वाले वैतनिक कर्मचारियों ने. ये लोग कम्यून पर बोझ बन गए. ऐसे 200-300 लोगों को वेतन देने के लिए कम्यून में प्रवेश शुल्क नरंतर बढ़ता गया. मुझे किसी ने यह भी कहा कि शायद जयेश की उस कंपनी में कोई साझेदारी है. उनकी साझेदारी तो किसी भी कंपनी से हो सकती है –बिल्डरों से हो सकती है, राजनेताओं से हो सकती है–जो कम्यून को बेचने में जयेश के सहयोगी बने हुए हैं.
विश्व बंधुत्व बह गया नाली में!   
ओशो के प्रवचन के इस उद्धरण को Osho.com पर केवल दूसरों के पढ़ने के लिए रखा गया है:   “मैं ऐसे संसार की कल्पना करता हूं जो एक हो, ऐसी मानव-जाति  जो एक हो, ऐसी मानव-जाति  जो सब कुछ बांट सके, बाहरी भी, भीतरी भी — एक गहरा आध्यात्मिक बंधुत्व…”  
वे बांटने के नाम पर लोगों में डिवाइड नहीं बल्कि लोगों को डिवाइड ही करना जानते हैं–डिवाइड एंड रूल ! ओशो के अनुसार बाँटने का अर्थ है  मित्रों को जोड़ो, उनके साथ मिलकर जीयो और आपके पास जो कुछ संभव है उनके साथ बाँट कर आनंद से रहो. फाइव स्टार होटल में अकेले बैठ कर पैसा उड़ाने से ज्यादा अच्छा है किसी सामान्य ढाबे पर बैठ कर मिलकर भोजन करने का मजा लेना–क्योंकि वहां आप अपने  प्रिय सहयात्रियों के साथ हमसफ़र होते हैं. संन्यास का और क्या अर्थ है? क्या यही कारण तो नहीं है कि अब अपना संन्यास नाम भी हटा कर कुछ और हो गए हैं ? मैं आपको अक्सर नाम भी बदलते देखता हूँ. जैसे जयेश के छोटे भाई पहले योगेंद्र थे, लेकिन अब “राज” हो गए हैं –वहां उन्हीं का ही राज है। क्या राज ठाकरे से प्रेरित होकर अपना नाम तो नहीं बदल दिया? राज ठाकरे अक्सर रिसोर्ट में आया करते थे।    
स्वामी चैतन्य कीर्ति।

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